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Friday 16 December 2011



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बुधवार, १३ जुलाई २०११

खाना कौन बनाये? महिलाओ की राय चाहूँगा

एक गंभीर मामले में मैं सभी महिलाओं की राय लेना चाहूँगा, मामला शुरू हुआ है नीतू बांगा की पोस्ट लड़कियां ही खाना बनाना क्यों सीखें? से

उन्होंने अपनी पोस्ट पर सवाल एकदम सही उठाया है और मैं भी इससे सहमत हूँ कि लड़कों को भी खाना बनाना सीखना चाहिए, पर कमेन्ट उस सवाल को एक नया रूख दे गए और जो मेरे सामने आया वह अचंभित करने वाला है-

उनको मैंने कमेन्ट दिया कि
मुझे लगता है नीतू जी की आपको किसी ने इस बात पर बहुत डांटा है, उसके बाद आपने यह लेख लिखा है :)

वैसे आपकी बातों से मैं सहमत हूँ, लड़कों को खाना बनाना आना चाहिए

पर मुझे खाना बनाना आने पर भी मैं तब तक खाना नही बनाऊंगा जब तक मेरी पत्नी भी कमाना शुरू ना कर दे, यदि वो मुझसे यह चाहे की मैं खाना बनाने मे सहयोग करूँ तो उसको कमाने मे सहयोग करना होगा...

इस बात पर नीतू जी असहमत हैं, जाहिर है उनका मानना है कि मैं नौकरी भी करूं और घर पर आकर खाना भी बनाऊँ भले ही मेरे पत्नी कमाने में मेरा सहयोग ना करे, या क्या बात हुई?

मैं भी स्त्रियों के सामान अधिकार की वकालत करता हूँ, यह आप मेरे दोनों ब्लोगों पर "नारी" ब्लॉग पर मेरे कमेंटों में देख चुके होंगे, पर अब यहाँ पर बात वेवकूफी तथा जिद की है, जिसकी मैं वकालत नहीं कर सकता-

मैं इन तीन परिस्थितियों में सहमत हूँ-


  1. पति कमाए तथा पत्नी घर चलाने की जिम्मेदारी संभाले
  2. पत्नी कमाए तथा पति घर चलाने की जिम्मेदारी संभाले
  3. दोनों कमाएँ तथा दोनों ही घर की जिम्मेदारी भी संभालें

पर ये कहाँ की बात हुई कि महिला को बराबर का अधिकार देने की बात कह कर महिलाएं घर का काम भी ना करें और कमाएँ भी नहीं?

पिछले कुछ दिनों से शादी के लिए लड़कियां तलाश रहा हूँ और कुछ ऐसे ही वेहद पेचीदा मामले मेरे सामने आये हैं, उनको आपके सामने रखना चाहता हूँ और आप सभी की (खास तौर पर महिलाओं की राय चाहता हूँ)

मामला १- एक लड़की ने कहा कि वो शादी के बाद साड़ी नहीं पहनेगी (कहीं भी नहीं, यानि गांव में भी नहीं, ससुराल में भी नहीं और मेरे साथ रहने पर भी नहीं)
मेरे विचार- क्या पहनना है और क्या नहीं वह आपको तय करना है दूसरे को नहीं पर सिर्फ तब तक जब तक मेरे साथ अलग रह रहे हो, कभी-कभी मेरे घर और गांव जाना ही होगा तब साड़ी ही पहननी होगी- भले ही मेरे माता-पिता कुछ और पहनने की इजाजत क्यूँ ना दे दें)
मामला २- एक लड़की का पहला सवाल था कि कहाँ रहेंगे? मैंने ज्यादा जानना चाहा तो पता चला कि वो कभी भी मेट्रो सिटी से बाहर जाना पसंद नहीं करेगी, यानि यदि उसी के शब्द कहूँ तो "मैं कभी भी गांव नहीं जाऊँगी चाहे कुछ भी क्यूँ ना हो जाए, और शायद आगरा (मेरा घर) भी नहीं"
मेरे विचार- ऐसे मामलों में शांत रहना ही ठीक है, वक्त सब कुछ सिखा देगा| वैसे भी ऐसी मूर्खता भरी जिद पर क्या कहा जा सकता है?
मामला ३- एक लड़की का कहना था कि मैं घर के काम नहीं जानती हूँ और सीखना भी नहीं चाहती, जब मैंने पुछा कि आप जॉब करना चाहतीं हैं तो उसका कहना था कि "जॉब करने के लिए बस, लोकल ट्रेन, ऑटो में धक्के खाने पड़ते हैं जो मुझे पसंद नहीं"
मेरे विचार - ऐसी लड़की से शादी करने से बेहतर है कुंवारे रहो

मेरे विचार छोडिये, मैं तो इस मामले में महिलाओं के विचार जानना चाहता हूँ, उनके भी जो शादी-शुदा हैं, उनके भी जिनकी अब बहुएं आ चुकी हैं और उनकी भी जो बहुत जल्द किसी के घर की लक्ष्मी बनाने जा रही हैं|

अपनी राय जरूर रखें - धन्यवाद|

शुक्रवार, ८ अप्रैल २०११

भारतीय युवा, आदरणीय श्री अन्ना जी के साथ हैं

मैं उन लोगों को समझाना चाहता था कि इस देश के युवा निकम्मे नहीं हैं, जिन्होंने युवाओं के वर्ल्ड-कप जीतने का जोरदार जश्न मनाने पर कहा कि युवाओं को देश की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए| पर मेरा मानना यह है कि काम से सामने वाले का मुंह बंद करो बातों से नहीं|
कल 8 / April / 2011 को IIT-mumbai के सभी छात्र-छात्राओं ने काली पट्टी बांधकर, हाथों में मोमबत्ती लेकर आदरणीय श्री अन्ना हजारे जी का समर्थन किया| मैं ज्यादा नहीं बोलना चाहता सिर्फ फोटो तथा वीडियो देखिये -

रविवार, १३ फरवरी २०११

विद्यार्थियों के लिए: आपकी खुशकिस्मत, सोच और आत्महत्या

माना कि आज वेलेंटाइन है और कुछ समय बाद होली आने बाली है पर एक और मौसम जोरो पर है और वो मौसम है परीक्षाओं का जी हाँ किसी हाईस्कूल या इंटरमीडिएट के विद्यार्थी से जाकर पूछिए तो वो आपको यही बताएगा|

हर साल विद्यार्थोयों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के किस्से सुन कर मुझे बहुत बुरा लगता है तो मैं एक सीरीज लिखने जा रहा हूँ खास तौर से उन विद्यार्थियों के लिए जो इस बर्ष बोर्ड की परीक्षाओं में बैठने जा रहे हैं और यह लेख इस सीरीज का पहला लेख है -

प्रिय विद्यार्थी,

सबसे पहले आपको मेरा नमस्कार क्यूंकि आप एक ऐसे रथ पर सवार हैं जिसकी तुलना किसी अन्य रथ से नहीं की जा सकती आप विद्या के रथ पर सवार हैं, यकीन मानिए आप बहुत खुशकिस्मत हैं जो आप इस रथ पर सवार हैं, यदि आपको यकीन नहीं होता तो आपको नीचे कुछ तसवीरें दे रहा हूँ, शायद आपको अंदाजा हो कि आपको विद्या के रूप में क्या मिल रहा है


 आप और चित्र भी देख सकते हैंयहाँ पर 

मुझे उम्मीद है कि आपको यह अंदाजा हो गया होगा कि आप कितने भाग्यशाली हैं, आप इस समय जिस रथ पर सवार हैं वह आपको एक ऐसी दिशा में ले जायेगा जहाँ पहुँच कर आप हर वो कार्य कर सकते हैं जिसके बारे में आप आज सिर्फ सोच सकते हैं, आप अपने सपने पूरे कर सकते हैं, आप दूसरों को सहारा दे सकते हैं, आप इस देश को सुधार सकते हैं और आप चाहें तो इन बच्चों के लिए भी बहुत कुछ कर सकते हैं, पर कब? जब आप विद्या का आदर करें, विद्या का आदर करने से मेरा अर्थ सुबह शाम पूजा किताबों की पूजा करना नहीं, बल्कि विद्या ग्रहण करने से है |

बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि आप मैं से कुछ विद्यार्थी विद्या की इज्जत नहीं करते और पढाई को सिर्फ पेपर पास करने से ही देखते हैं, पूरे बर्ष नहीं पढते सिर्फ अंतिम समय में किताबों में झांकते हैं और सिर्फ महत्वपूर्ण प्रश्नों को तोते की तरह रटने में लग जाते हैं | कुछ तो इससे भी आगे निकल जाते हैं वो नक़ल करने के तरीके निकालते हैं और नक़ल करने की सफल या असफल कोशिश कर विद्या का अपमान करते हैं | 

सबसे बड़ी गलती तो कोई भी विद्यार्थी तब करता है जब परीक्षा में फेल होने पर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाता है, क्या आपको पता है आत्महत्या करने से पहले ना पढ़ कर तो आप सिर्फ अपना नुकसान ही कर रहे थे, पर आत्महत्या करने के बाद तो आप अपने परिवार, खास तौर से अपने माता-पिता, बहन-भाई का कितना बड़ा नुकसान करते हैं ?

क्या आपको पता है कि उनके मन पर क्या गुजरती है जब आप उनकी जिंदगी से चले जाते हैं? 

याद रखिये कि आप जिस समाज में रहते हैं उस समाज ने आपके लिए बहुत कुछ किया है और जब तक आप इस दुनिया में रहते हैं तब तक आपके लिए कुछ न कुछ करता ही रहता है फिर क्यूँ आप अपनी जिम्मेदारी निभाए बिना इस दुनिया से चले जाना चाहते हैं ? सिर्फ इसलिए कि आप किसी परीक्षा में फेल हो गए हैं?

"असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है" यह ब्रह्मवाक्य याद रखिये, आप असफल हुए हैं क्यूंकि आपने अपना पूरा जोर नहीं लगाया और असफल होने के पीछे आपकी गलती है, अपनी गलती को मानिये और दुबारा श्रम में जुट जाइये लगा दीजिए अपनी पूरी जान इस बार, और सभी ताने देने बालों का मुंह बंद कर दीजिए | 

यह तजुर्बा आपको असफलता को झेलने की ताकत देगा और आपको एक अच्छा नागरिक बनाएगा, याद रखिये कि यह जीवन सिर्फ आपका नहीं है, आपके माता-पिता का इस शरीर पर पहला हक है और आत्महत्या कर के आप उनका यह हक छीन रहे हैं, खुद पर नहीं तो कम से कम अपने माँ-बाप पर दया कीजिये और इस कदम को मत उठाइए |

एक कविता की पंक्तियाँ (स्व. श्री हरिवंश राय बच्चन जी की लिखी हुई) याद आ रही हैं मैं चाहूँगा कि आप जरूर पढ़ें -

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।



अगले लेख में मैं आपको परीक्षा में अलग-अलग रंगों के पेन के प्रयोग के बारे में जानकारी दूंगा - 

सामूहिक ब्लॉग: समाधान या समस्या ?



मेरी इस पोस्ट से कई लोगों की भवें तन सकतीं है, पर समस्या गंभीर है तो हाथ माने नहीं और यह लेख बन गया मैं अपनी बात को कम से कम शब्दों में रखने की कोशिश करूँगा सबसे पहले आपको ३ फरवरी की एक घटना बताता हूँ,

रविन्द्र प्रभात जी ने लखनऊ ब्लोगर्स एसोसिएशन पर लिखा कि "आज मैं एल. बी. ए. के अध्यक्ष पद से स्वयं को मुक्त करता हूँ" क्यूँ किया ? सही कारण तो मुझे पता नहीं पर शायद किसी धार्मिक विवाद की वजह से ऐसा हुआ, उसी दिन शाम को एक और पोस्ट आई और मैं चौंक गया बात ही कुछ ऐसी थी पोस्ट का टाइटल था "इंडियन ब्लॉगर्स असोसिएशन का आगमन होने जा रहा है, आईये सदस्य बनें !" यह पोस्ट लिखी थी सलीम खान जी ने!

मुझे लगा कि शायद सलीम खान जी ने इस घटना से सीख कर एक नया मंच बनाने की कोशिश की है और क्यूंकि उनका दावा है कि यह और ज्यादा शक्तिशाली मंच होगा तो मैंने सोचा कि इस बार काफी कड़े नियमों के साथ एक नये मंच का प्रारंभ होने जा रहा है, यह सोच कर मैं उनके द्वारा लेख में दिए गए लिंक All India Bloggers' Association ऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन पर पहुंचा पर नतीजा ढाक के तीन पात!!!

कोई शर्त नहीं, कोई पात्रता के नियम नहीं, जिसका मन हो जुड जाइये, ना नए एसोसिएशन का कोई उद्देश्य बस जी जुड जाइए हम सबसे शक्तिशाली मंच बनाएंगे पर किसलिए भाई?  
क्या करोगे ये शक्तिशाली मंच बना कर?
क्या उद्देश्य है इस मंच का?  
किस विषय पर लिखवाना चाहते है?
किस समस्या को आप हल करने वाले हैं ? जो लखनऊ ब्लोगर्स एसोसिएशन पर हल नहीं हो पा रही थी

और कमाल की बात ये कि खुद लखनऊ ब्लोगर्स एसोसिएशन का उद्देश्य क्या था, कोई जानता है ?

अब बात करता हूँ एसोसिएशन की, क्या बला है  एसोसिएशन? परिभाषा मैंने विकीपीडिया से चुरा ली है आप खुद ही पढ़ लीजिए "लोगों का एक समूह जो एक किसी खास उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक सूत्र में बंधते हैं " (a group of individuals who voluntarily enter into an agreement to accomplish a purpose ) मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस तरह से समूह से जुड़ने वाले ८०% लोगों को पता ही नहीं होगा कि किस उद्देश्य की पूर्ती के लिए हम आपस में जुड रहे हैं ? 

क्यूँ जुड़ते हैं लोग ?  मैंने खोजने की कोशिश की कि आखिर लोग क्यूँ जुड़ते हैं ऐसे समूह से ? यह मकसद मेरे समझ में आया "मेरा लेख मेरे चिट्ठे पर ही रहेगा तो हो सकता है सिर्फ २-४ लोग ही पढ़ें पर यदि एक समूह चिट्ठे पर रहेगा तो अधिक से अधिक लोग पढ़ पाएंगे", यदि यही है आपका उद्देश्य तब तो हो चुकी आपकी शक्तिशाली मंच बनाने की आश पूरी, सोच सोच कर खुश होते रहिये कि हम एक विशाल मंच बना रहे हैं जिस पर एक ही दिन में सौ से ज्यादा पोस्ट आ जाती हैं करते रहिये अपना सीना चौड़ा और मनाते रहिये अपनी झूठी सफलता पर गर्व |

मुझे समस्या क्या है ? आप लोग मुझसे पूछेंगे कि मुझे क्या समस्या है कि मैं इतना लंबा चौड़ा पोस्ट लिख रहा हूँ? तो मेरी समस्या बहुत छोटी सी है वो ये कि मुझे अच्छे लेख पढ़ने के लिए चाहिए ना कि पूरा ब्लॉग जगत एक ही लेख से भरा चाहिए, जी हाँ आज जिधर भी नजर दौडाई कुछ ही लेख हर जगह पढ़ने को मिले उदाहरण के लिए  एक लेख लिखा गया है "मीनाक्षी पन्त" जी के द्वारा नाम है "मत रो आरुषि" ये लेख आपको निम्नलिखित जगह पर मिलेगा


हिंदुस्तान का दर्द पर मत रो आरुषि
दुनिया रंग रंगीली पर मत रो आरुषि
आल इंडिया ब्लोगर्स एसोसिएशन पर मत रो आरुषि 
स्वतन्त्र विचार पर मत रो आरुषि

मीनाक्षी जी का मैंने सिर्फ उदाहरण दिया है, समूह ब्लॉग पर लिखने वाले ब्लोगर यही करते हैं, सबसे पहले अपना लेख लिखा फिर अपने लेख को सभी समूह ब्लॉग पर पोस्ट कर दिया, इनके पाठक बढ़ गए और समूह चिटठा चलने वाले को यह खुशफहमी हो गयी कि मैंने एक शक्तिशाली मंच बना दिया है|

अंत में: सभी समूह ब्लॉग के अध्यक्षों से मेरा यह आग्रह है कि अपने सामूहिक ब्लॉग का कोई उद्देश्य निहित कीजिए और उस उद्देश्य के अनुसार ही लोगों को उसमे सम्मिलित कीजिए, और सच में एक शक्तिशाली मंच बनाइये, इस समय हिन्दी ब्लोगरों की एक विकट समस्या है कि विभिन्न अखबार तथा पत्रिकाएं उनके लेख बिना पूछे ऑर कभी कभार तो किसी ऑर के नाम से प्रकाशित कर देतीं हैं, मेहनताने की बात तो छोड़ ही दीजिए, सलीम जी क्या आपके इस एसोसिएशन से जुड़े सदस्य या आप खुद इस समस्या के लिए कुछ करेंगे? यदि नही कर सकते तो आप खुद ही सोचिये कि क्या फायदा आपके अध्यक्ष होने का क्या एक अध्यक्ष का कार्य सिर्फ नये नये एसोशिशन ( बिना उद्देश्य का ) बनाते रहना ही होता है ?

इतना कुछ लिखने के बाद मैं कुछ अच्छे सामूहिक ब्लॉग के बारे में लिखना चाहूँगा जिनका कोई उद्देश्य है और वो उसी उद्देश्य की तरफ प्रयासरत हैं

१. साइंस ब्लोगर्स एसोसिएशन (साइंस को फ़ैलाने की कोशिश)
२. हिंद युग्म (साहित्य की दिशा में अद्भुत प्रयत्न)
३. रचनाकार (साहित्यकारों को एक मंच प्रदान करता चिटठा)
४. ब्लोगोत्सव-२०१० (इस ब्लॉग के बारे में तो कहा ही क्या जाये, जो कार्य इस ब्लॉग पर हुआ है उसको तो शब्दों में कहा ही नहीं जा सकता)
५. नारी  (नारियों को समर्पित एक ब्लॉग)
६. स्वास्थ्य सबके लिए (स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फ़ैलाने का प्रयत्न)
७. चिटठा चर्चा (अच्छे लेखो की चर्चा करने के लिए बनाया गया एक मंच)

और भी कई सामूहिक ब्लॉग हैं जिनका कोई उद्देश्य है, और उसकी तरफ प्रयासरत हैं, भले ही उन पर कम लेख आते हों पर उन लेखों का कोइ उद्देश्य तो होता है, वो किसी दिशा में आगे तो बढ़ रहे हैं|

ये तो मेरे विचार हैं, एक व्यक्ति के विचार मेरे लिए कोई खास मायने नहीं रखते, एक व्यक्ति (मैं) गलत भी हो सकता हूँ, हो सकता है मैंने सिक्के के सिर्फ एक पहलू को ही देखा हो दूसरा पहलू अनछुआ रह गया हो, आप अपने विचार जरूर रखें जिससे सही दिशा की ओर बढ़ सकें |

और हाँ, यदि आप आल इंडिया ब्लोगर्स एसोसिएशन से जुड़े हुए हैं तो उसका उद्देश्य भी कमेन्ट में लिखते  जाइये जिससे मेरी गलतफहमी दूर हो जाये - धन्यवाद |

सोमवार, २८ जून २०१०

नारी: ताड़ना की अधिकारी?

मैंने कई लोगो से यह सवाल पूछा है पर आज तक किसी भी जबाब से संतुष्ट नहीं हुआ, तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आप से पूछ लिया जाये |
एक दोहा है, आप सभी ने सुना होगा, जाने माने संत ने लिखा है तो इस के खिलाफ बोलना भी ठीक नहीं लगता, हो सकता है कि वो कुछ और अर्थ देना चाहते हो पर मेरी छोटी बुद्धि में तो सिर्फ सीधी बात समझ में आती है, दोहा इस प्रकार है -

ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी 

जिसका अर्थ मेरी नज़र में है- ढोलक, अनपढ़ (जिसको कोई अक्ल ना हो), शुद्र यानि छोटे कार्य करने वाले लोग (इसका अर्थ चोर, गुंडे, बदमाश जैसे मनुष्यों से हो सकता है), जानवर तथा महिला (स्त्री) सिर्फ और सिर्फ प्रताड़ना के अधिकारी है |

अब जहाँ तक मेरी बात है में अनपढ़ तथा महिला को सकल ताड़ना का अधिकारी नहीं मान सकता, मैं सोच ही नहीं सकता, पर ऐसा भी हो सकता है कि मैं इसका अर्थ गलत निकाल रहा हूँ |

यदि आप में से किसी को इसका सही अर्थ पता हो तो जरूर लिखे - धन्यवाद

सोमवार, १० मई २०१०

संवेदना-शून्य समाज की ओर

कुछ समय पहले मेरे नाना-नानी मुंबई मेरे पास आये हुए थे. मैं उनको घुमाने के लिए अटरिया माल (साउथ मुंबई ) ले कर गया | वहां पर एक घटना घटी, जो मेरे लिए साधारण थी पर नानी जी के लिए असाधारण, मेरे लिए साधारण इसलिए थी क्यूंकि मैं शायद संवेदना हीन समाज का एक हिस्सा बन चुका हूँ या फिर ज्यादा समझदार हो चुका हूँ और समझता हूँ कि कभी कभी संवेदन हीनता भी बरतनी पड़ती है |

घटना - 
हुआ ये कि जब अटरिया माल मे प्रवेश किया तो guards ने metal-detectar से तलाशी ली, उनका तलाशी लेना मेरे लिए साधारण बात थी, मै समझता हूँ कि लगातार होती घटनाओं को रोकने के लिए इस तरह की भीड़ भरी जगह पर तलाशी लेने मे कोई बुरे नहीं है, पर नानी कैसे समझती, उनके साधारण से मन को यह बिलकुल भी बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई उनकी तलाशी ले, ६८  बसंत पार कर चुकी नानी ने दूसरे के सोने को भी मिटटी ही समझा, उनका मन यह कैसे बर्दास्त करता कि कोई उन पर शक करे और तलाशी देने को कहे, छोटे शहरों में किसी की तलाशी लेने का मतलब उसको अपमानित करना होता है, और उनको यह सरासर अपमान लगा, उन्होंने गार्ड से यही कहा कि - 
"लला (बेटा) हम ऐसो कोई काम नाही करत है कि कोई हम पे ऊँगली ओ उठावे "
उनकी बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आतंकवाद, अपराध इत्यादि को रोकने के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था कायम कर रहे हैं जो हमें संवेदना शून्य बना रही है ? इस सवाल की तलाश में जब मैंने थोडा सा सोचना प्रारंभ किया तो मैंने पाया कि अगर पिछले 50 सालों पर नज़र डाली जाये तो अब हम लोग पहले के मुकाबले ज्यादा संवेदना-शून्य हो गए हैं.  
मैं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूँ -
  • खबरें - आप आज का अखबार खोलिए, उसमे चोरी, बलात्कार, मारपीट इत्यादि दुखद घटनाएं मिलेंगी, पर क्या आप वाकई उन घटनाओं को पढ़ते हैं, और अगर पढ़ते भी है तो क्या अफ़सोस भी करते हैं ? शायद नहीं क्यूंकि यह अब आम बात हो गयी है, आजकल हमारे समाज में चोरी होना, बलात्कार होना आम बात हो गयी है, जैसे यह हमारे जीवन में शामिल ही हो, जब सुबह अखबार खोलते हैं तो हम यह मान कर ही चलते हैं कि इस तरह की घटनाएं तो होंगी ही, और कुछ नयी तरह की खबरों को अखबार में खोजते हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था, मुझे याद है कि आगरा में जब सुबह-सुबह घर पर अखबार आता था तो इस तरह की खबरों को खास तबज्जो डी जाती थी, इस पर बहस होती थी और बुरे काम करने बालों को कोसा जाता था, पर आज ऐसा नहीं है, हम संवेदना-शून्य समाज की ओर अग्रसर हो रहे हैं.

  • दुर्घटनाएं- मान लीजिये कि आप सड़क पर जा रहे हैं और आपके सामने एक भीड़ लगी हुई है, आप या तो रुकेंगे ही नहीं, और अगर रुकेंगे भी तो किसी से पूछेंगे कि क्या हुआ, जबाब मिलेगा कि दुर्घटना हो गयी है कुछ लोगों को बहुत चोट आई है,  आप अफ़सोस जताएंगे और अपने काम पर चले जायेंगे... क्या पहले ऐसा होता था ?

  • आवाजें - आप घर पर बैठे है, चाय पी रहे है, अचानक आपकी बिल्डिंग के नीचे से ambulance के siren सुनाई देते हैं, क्या आप बहार निकलते हैं, यह देखने के लिए को कहीं आपके पड़ोस की बिल्डिंग में ही आग तो नहीं लग गयी?क्या आपके मन में विचार आता है कि कुछ लोगो को आपकी मदद की जरूरत हो सकती है ?

कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन हमारे अंदर की सारी संवेदना समाप्त हो जाये, और हम लोग दूसरों की परवाह करना ही छोड़ दें | हमेशा याद रखिये एक दिन हमको भी किसी की जरूरत पड़ सकती है, और जब हम किसी की मदद नहीं करते तो किसी और से उम्मीद भी नहीं कर सकते |

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